एक थका-माँदा शिल्पकार लंबी यात्रा के बाद किसी छायादार वृक्ष के नीचे विश्राम के लिये बैठ गया।अचानक उसे सामने एक पत्थर का टुकड़ा पड़ा दिखाई दिया। उस शिल्पकार ने उस सुंदर पत्थर के टुकड़े को उठा लिया, सामने रखा और थैले से छेनी-हथौड़ी निकाली ! उसे तराशने की ग़रज़ से जैसे ही पहली चोट की, पत्थर जोर से चिल्ला पड़ा:- “ अरे मुझे मत मारो।”
शिल्पकार ने उस पत्थर को छोड़ दिया और पास ही पड़े अपनी पसंद का एक अन्य टुकड़ा उठाया और उसे छैनी – हथौड़ी से तराशने लगा। वह टुकड़ा चुपचाप वार सहता गया और देखते ही देखते उस पत्थर के टुकड़े मे से एक देवी की प्रतिमा उभर आई।
उस प्रतिमा को वहीं पेड़ के नीचे रख वह शिल्पकार अपनी राह पकड़ आगे चला गया।
कुछ वर्षों बाद वो शिल्पकार फिर उसी रास्ते से गुजरा तो देखा कि उसकी बनाई उस मूर्ती की पूजा अर्चना हो रही है,और जिस पत्थर के टुकड़े को उसने उसके रोने चिल्लाने पर फेंक दिया था लोग उसके सिर पर नारियल फोड़कर मूर्ती पर चढ़ा रहे है।
यह छोटी सी कहानी हमें बताती है कि — “जीवन में कुछ बनने के लिए जो व्यक्ति शुरु में अपने जीवन के शिल्पकार (माता-पिता, और गुरु आदि) का सत्कार कर, उनके द्वारा नेक इरादे से दिए गए क्षणिक कष्ट झेल लेता है तो इस तरह जो जीवन निर्मित होता है, उसका सत्कार बाद में समाज और देश ही नहीं पूरा विश्व युगों तक करता है, और जो जीवन निर्माण के क्षणिक कष्ट से बचकर भागना चाहते हैं वे बाद में जीवन भर कष्ट झेलते हैं !